अपनी प्रचलित परिभाषा के अनुसार गंड मूल दोष लगभग हर चौथी-पांचवी कुंडली में उपस्थित पाया जाता है तथा अनेक ज्योतिषियों की धारणा के अनुसार यह दोष कुंडली धारक के जीवन में तरह तरह की परेशानियां तथा अड़चनें पैदा करने में सक्षम होता है। तो आइए आज इस दोष के बारे में चर्चा करते हैं तथा देखते हैं कि वास्तव में यह दोष होता क्या है, किसी कुंडली में यह दोष बनता कैसे है, तथा इसके दुष्प्रभाव क्या हो सकते हैं।
इस दोष की प्रचलित परिभाषा के अनुसार अगर किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में चन्द्रमा, रेवती, अश्विनी, श्लेषा, मघा, ज्येष्ठा तथा मूल नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र में स्थित हो तो कुंडली धारक का जन्म गंड मूल में हुआ माना जाता है अर्थात उसकी कुंडली में गंड मूल दोष की उपस्थिति मानी जाती है। इस परिभाषा के अनुसार कुल 27 नक्षत्रों में से उपर बताए गए 6 नक्षत्रों में चन्द्रमा के स्थित होने से यह दोष माना जाता है जिसका अर्थ यह निकलता है कि यह दोष लगभग हर चौथी-पांचवी कुंडली में बन जाता है। किन्तु मेरे विचार से यह धारणा ठीक नहीं है तथा वास्तव में यह दोष इतनी अधिक कुंडलियों में नही बनता। आइए अब देखते हैं कि यह दोष वास्तव में है क्या तथा चन्द्रमा के इन 6 विशेष नक्षत्रों में उपस्थित होने से ही यह दोष क्यों बनता है।
नक्षत्र संख्या में कुल 27 होते हैं तथा इन्हीं 27 नक्षत्रों से 12 राशियों का निर्माण होता है। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं तथा इस प्रकार से 27 नक्षत्रों के कुल मिलाकर 108 चरण होते हैं। प्रत्येक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं अर्थात किन्हीं तीन नक्षत्रों के 9 चरण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक राशि में किन्ही तीन नक्षत्रों के नौ चरण होने पर 12 राशियों में इन 27 नक्षत्रों के 108 चरण होते हैं। चन्द्रमा अपनी गति से क्रमश: इन सभी नक्षत्रों में बारी-बारी भ्रमण करते हैं तथा किसी भी समय विशेष और स्थान विशेष पर वे किसी न किसी नक्षत्र के किसी न किसी चरण में अवश्य उपस्थित रहते हैं। यह सिद्धांत बाकी सब ग्रहों पर भी लागू होता है।
किसी भी स्थान विशेष के आकाश मंडल में नक्षत्र तथा राशियां अपने एक विशेष क्रम में बारी-बारी से उदय होते रहते हैं जैसे कि राशियां मेष से मीन की ओर तथा नक्षत्र अश्विनी से रेवती की ओर क्रमवार उदय होते हैं। राशियों में अंतिम मानी जाने वाली मीन राशि के बाद प्रथम राशि मेष उदय होती है तथा नक्षत्रों में अंतिम माने जाने वाले रेवती नक्षत्र के बाद प्रथम नक्षत्र अश्विनी उदय होता है तथा यह सिलसिला क्रमवार इसी तरह से निरंतर चलता रहता है। इस प्रक्रिया के दौरान प्रत्येक नक्षत्र के अस्त होने और क्रम में उससे अगले नक्षत्र के उदय होने के बीच में इन नक्षत्रों के मध्य एक संधि स्थल आता है जहां पर एक नक्षत्र अपने अस्त होने की प्रकिया में होता है तथा क्रम में उससे अगला नक्षत्र अपने उदय होने की प्रक्रिया में होता है। इस समय विशेष में आकाश मंडल में इन दोनों ही नक्षत्रों का मिला जुला प्रभाव देखने को मिलता है। इसी प्रकार का संधि स्थल प्रत्येक राशि के अस्त होने तथा उससे अगली राशि के उदय होने की स्थिति में भी आता है जब दोनों ही राशियों का प्रभाव आकाश मंडल में देखने को मिलता है। इस प्रकार 27 नक्षत्रों के क्रमवार उदय और अस्त होने की प्रक्रिया में 27 संधि स्थल आते हैं तथा 12 राशियों के क्रमवार उदय और अस्त होने की प्रक्रिया में 12 संधि स्थल आते हैं। अपनी गति से क्रमवार इन नक्षत्रों में भ्रमण करते चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह भी इन संधि स्थलों से होकर निकलते हैं।
27 नक्षत्रों तथा 12 राशियों के बीच आने वाले इन संधि स्थलों में से केवल तीन संयोग ही ऐसे बनते हैं जब यह दोनों संधि स्थल एक दूसरे के साथ भी संधि स्थल बनाते हैं अर्थात इन बिंदुओं पर एक ही समय एक नक्षत्र क्रम में अपने से अगले नक्षत्र के साथ संधि स्थल बना रहा होता है तथा उसी समय कोई एक विशेष राशि क्रम में अपने से अगली राशि के साथ संधि स्थल बना रही होती है। इस स्थिति में दो नक्षत्रों का संधि स्थल दो राशियों के संधि स्थल के साथ एक नया संधि स्थल बनाता है। यह संयोग राशियों और नक्षत्रों के संधि स्थल बनाने की इस प्रक्रिया में केवल तीन विशेष बिंदुओं पर ही बनता है तथा जब-जब चन्द्रमा भ्रमण करते हुए इन तीनों में से किसी एक बिंदु में स्थित हो जाते हैं, उन्हें राशियों तथा नक्षत्रों के इन दोहरे संधि स्थलों में स्थित होने से कुछ विशेष दुष्प्रभाव झेलने पड़ते हैं तथा कुंडली में चन्द्रमा की ऐसी स्थिति को गंड मूल दोष का नाम दिया जाता है।
आइए अब इन तीन दोहरे संधि स्थलों के बारे में चर्चा करें। इनमें से पहला दोहरा संधि स्थल तब आता है जब नक्षत्रों में से अंतिम नक्षत्र रेवती अपने चौथे चरण में आ जाते हैं तथा अपने अस्त होने की प्रक्रिया को शुरू कर देते हैं तथा दूसरी ओर नक्षत्रों में से प्रथम नक्षत्र अश्विनी अपने पहले चरण के साथ अपने उदय होने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं जिससे इन दोनों नक्षत्रों के मध्य एक संधि स्थल का निर्माण हो जाता है। ठीक इसी समय पर मीन राशि अपने अस्त होने की प्रक्रिया में होती है तथा मेष राशि अपने उदय होने की प्रक्रिया में होती है, जिसके कारण इन दोनों राशियों के मध्य भी एक संधि स्थल बन जाता है तथा यह दोनों संधि स्थल मिलकर एक दोहरा संधि स्थल बना देते हैं और इस दोहरे संधि स्थल में चन्द्रमा के स्थित हो जाने से गंड मूल दोष का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार का दूसरा संधि स्थल तब बनता हैं जब नवें नक्षत्र श्लेषा का चौथा चरण तथा दसवें नक्षत्र मघा का पहला चरण आपस में संधि स्थल बनाते हैं तथा ठीक उसी समय चौथी राशि कर्क पांचवी राशी सिंह के साथ संधि स्थल बनाती है। इस प्रकार का तीसरा संधि स्थल तब बनता हैं जब अठारहवें नक्षत्र ज्येष्ठा का चौथा चरण तथा उन्नीसवें नक्षत्र मूल का पहला चरण आपस में संधि स्थल बनाते हैं तथा ठीक उसी समय आठवीं राशि वृश्चिक नवीं राशि धनु के साथ संधि स्थल बनाती है। इन तीनों में से किसी भी संधि स्थल में चन्द्रमा के स्थित होने से कुंडली में गंड मूल दोष का निर्माण होता है।
आइए अब इस दोष की प्रचलित परिभाषा तथा इसके वैज्ञानिक विशलेषण से निकली परिभाषा की आपस में तुलना करें। प्रचलित परिभाषा के अनुसार यह दोष चन्द्रमा के उपर बताए गए 6 नक्षत्रों के किसी भी चरण में स्थित होने से बन जाता है जबकि उपर दी गई वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार यह दोष चन्द्रमा के इन 6 नक्षत्रों के किसी एक नक्षत्र के किसी एक विशेष चरण में होने से ही बनता है, न कि उस नक्षत्र के चारों में से किसी भी चरण में स्थित होने से। इस प्रकार यह दोष हर चौथी-पांचवी कुंडली में नहीं बल्कि हर 18वीं कुंडली में ही बनता है। पाठकों की सुविधा के लिए इस दोष के बनने के लिए आवश्यक परिस्थितियों का जिक्र मैं सक्षेप में एक बार फिर कर रहा हूं। किसी भी कुंडली में गंड मूल दोष तभी बनता है जब उस कुंडली में :
चन्द्रमारेवतीनक्षत्रकेचौथेचरणमेंस्थितहों
अथवा
चन्द्रमा अश्विनी नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा श्लेषा नक्षत्र के चौथे चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा मघा नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र के चौथे चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा मूल नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों
इस दोष के बारे में जान लेने के पश्चात आइए अब इस दोष से जुड़े बुरे प्रभावों के बारे में भी जान लें। गंड मूल दोष भिन्न-भिन्न कुंडलियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के बुरे प्रभाव देता है जिन्हें ठीक से जानने के लिए यह जानना आवश्यक होगा कि कुंडली में चन्द्रमा इन 6 में से किस नक्षत्र में स्थित हैं, कुंडली के किस भाव में स्थित हैं, कुंडली के दूसरे सकारात्मक या नकारात्मक ग्रहों का चन्द्रमा पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ रहा है, चन्द्रमा उस कुंडली विशेष में किस भाव के स्वामी हैं तथा ऐसे ही कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य। इस प्रकार से अगर यह दोष कुछ कुंडलियों में बनता भी है तो भी इसके बुरे प्रभाव अलग-अलग कुंडलियों में अलग-अलग तरह के होते हैं तथा अन्य दोषों की तरह इस दोष के बुरे प्रभावों को भी किसी विशेष परिभाषा के बंधन में नहीं बांधना चाहिए बल्कि किसी भी कुंडली विशेष में इस दोष के कारण होने वाले बुरे प्रभावों को उस कुंडली के गहन अध्ययन के बाद ही निश्चित करना चाहिए।
लेख के अंत में आइए इस दोष के निवारण के लिए किए जाने वाले उपायों के बारे में बात करें। इस दोष के निवारण का सबसे उत्तम उपाय इस दोष के निवारण के लिए पूजा करवाना ही है। यह पूजा सामान्य पूजा की तरह न होकर एक तकनीकी पूजा होती है तथा इसका समापन प्रत्येक मासे में किसी एक विशेष दिन ही किया जा सकता है। इस विशेष दिन से 7 से 10 दिन पूर्व यह पूजा शुरू की जाती है तथा 5 से लेकर 7 ब्राह्मण किसी एक मंत्र विशेष का एक निर्धारित सख्या में इस दोष से पीड़ित व्यक्ति के लिए जाप करना शुरु कर देते हैं। यह मंत्र इस दोष से पीड़ित व्यक्ति की कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति देखकर तय किया जाता है तथा इस दोष से पीड़ित विभिन्न लोगों के लिए यह मंत्र भिन्न हो सकता है। मंत्र का एक निश्चित संख्या में जाप पूरा होने पर इस पूजा के समापन के लिए निर्धारित किए गए दिन पर इस पूजा का समापन किया जाता है, जिसमें पूजन, हवन, दान, स्नान के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं।
इस दोष की प्रचलित परिभाषा के अनुसार अगर किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में चन्द्रमा, रेवती, अश्विनी, श्लेषा, मघा, ज्येष्ठा तथा मूल नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र में स्थित हो तो कुंडली धारक का जन्म गंड मूल में हुआ माना जाता है अर्थात उसकी कुंडली में गंड मूल दोष की उपस्थिति मानी जाती है। इस परिभाषा के अनुसार कुल 27 नक्षत्रों में से उपर बताए गए 6 नक्षत्रों में चन्द्रमा के स्थित होने से यह दोष माना जाता है जिसका अर्थ यह निकलता है कि यह दोष लगभग हर चौथी-पांचवी कुंडली में बन जाता है। किन्तु मेरे विचार से यह धारणा ठीक नहीं है तथा वास्तव में यह दोष इतनी अधिक कुंडलियों में नही बनता। आइए अब देखते हैं कि यह दोष वास्तव में है क्या तथा चन्द्रमा के इन 6 विशेष नक्षत्रों में उपस्थित होने से ही यह दोष क्यों बनता है।
नक्षत्र संख्या में कुल 27 होते हैं तथा इन्हीं 27 नक्षत्रों से 12 राशियों का निर्माण होता है। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं तथा इस प्रकार से 27 नक्षत्रों के कुल मिलाकर 108 चरण होते हैं। प्रत्येक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं अर्थात किन्हीं तीन नक्षत्रों के 9 चरण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक राशि में किन्ही तीन नक्षत्रों के नौ चरण होने पर 12 राशियों में इन 27 नक्षत्रों के 108 चरण होते हैं। चन्द्रमा अपनी गति से क्रमश: इन सभी नक्षत्रों में बारी-बारी भ्रमण करते हैं तथा किसी भी समय विशेष और स्थान विशेष पर वे किसी न किसी नक्षत्र के किसी न किसी चरण में अवश्य उपस्थित रहते हैं। यह सिद्धांत बाकी सब ग्रहों पर भी लागू होता है।
किसी भी स्थान विशेष के आकाश मंडल में नक्षत्र तथा राशियां अपने एक विशेष क्रम में बारी-बारी से उदय होते रहते हैं जैसे कि राशियां मेष से मीन की ओर तथा नक्षत्र अश्विनी से रेवती की ओर क्रमवार उदय होते हैं। राशियों में अंतिम मानी जाने वाली मीन राशि के बाद प्रथम राशि मेष उदय होती है तथा नक्षत्रों में अंतिम माने जाने वाले रेवती नक्षत्र के बाद प्रथम नक्षत्र अश्विनी उदय होता है तथा यह सिलसिला क्रमवार इसी तरह से निरंतर चलता रहता है। इस प्रक्रिया के दौरान प्रत्येक नक्षत्र के अस्त होने और क्रम में उससे अगले नक्षत्र के उदय होने के बीच में इन नक्षत्रों के मध्य एक संधि स्थल आता है जहां पर एक नक्षत्र अपने अस्त होने की प्रकिया में होता है तथा क्रम में उससे अगला नक्षत्र अपने उदय होने की प्रक्रिया में होता है। इस समय विशेष में आकाश मंडल में इन दोनों ही नक्षत्रों का मिला जुला प्रभाव देखने को मिलता है। इसी प्रकार का संधि स्थल प्रत्येक राशि के अस्त होने तथा उससे अगली राशि के उदय होने की स्थिति में भी आता है जब दोनों ही राशियों का प्रभाव आकाश मंडल में देखने को मिलता है। इस प्रकार 27 नक्षत्रों के क्रमवार उदय और अस्त होने की प्रक्रिया में 27 संधि स्थल आते हैं तथा 12 राशियों के क्रमवार उदय और अस्त होने की प्रक्रिया में 12 संधि स्थल आते हैं। अपनी गति से क्रमवार इन नक्षत्रों में भ्रमण करते चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह भी इन संधि स्थलों से होकर निकलते हैं।
27 नक्षत्रों तथा 12 राशियों के बीच आने वाले इन संधि स्थलों में से केवल तीन संयोग ही ऐसे बनते हैं जब यह दोनों संधि स्थल एक दूसरे के साथ भी संधि स्थल बनाते हैं अर्थात इन बिंदुओं पर एक ही समय एक नक्षत्र क्रम में अपने से अगले नक्षत्र के साथ संधि स्थल बना रहा होता है तथा उसी समय कोई एक विशेष राशि क्रम में अपने से अगली राशि के साथ संधि स्थल बना रही होती है। इस स्थिति में दो नक्षत्रों का संधि स्थल दो राशियों के संधि स्थल के साथ एक नया संधि स्थल बनाता है। यह संयोग राशियों और नक्षत्रों के संधि स्थल बनाने की इस प्रक्रिया में केवल तीन विशेष बिंदुओं पर ही बनता है तथा जब-जब चन्द्रमा भ्रमण करते हुए इन तीनों में से किसी एक बिंदु में स्थित हो जाते हैं, उन्हें राशियों तथा नक्षत्रों के इन दोहरे संधि स्थलों में स्थित होने से कुछ विशेष दुष्प्रभाव झेलने पड़ते हैं तथा कुंडली में चन्द्रमा की ऐसी स्थिति को गंड मूल दोष का नाम दिया जाता है।
आइए अब इन तीन दोहरे संधि स्थलों के बारे में चर्चा करें। इनमें से पहला दोहरा संधि स्थल तब आता है जब नक्षत्रों में से अंतिम नक्षत्र रेवती अपने चौथे चरण में आ जाते हैं तथा अपने अस्त होने की प्रक्रिया को शुरू कर देते हैं तथा दूसरी ओर नक्षत्रों में से प्रथम नक्षत्र अश्विनी अपने पहले चरण के साथ अपने उदय होने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं जिससे इन दोनों नक्षत्रों के मध्य एक संधि स्थल का निर्माण हो जाता है। ठीक इसी समय पर मीन राशि अपने अस्त होने की प्रक्रिया में होती है तथा मेष राशि अपने उदय होने की प्रक्रिया में होती है, जिसके कारण इन दोनों राशियों के मध्य भी एक संधि स्थल बन जाता है तथा यह दोनों संधि स्थल मिलकर एक दोहरा संधि स्थल बना देते हैं और इस दोहरे संधि स्थल में चन्द्रमा के स्थित हो जाने से गंड मूल दोष का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार का दूसरा संधि स्थल तब बनता हैं जब नवें नक्षत्र श्लेषा का चौथा चरण तथा दसवें नक्षत्र मघा का पहला चरण आपस में संधि स्थल बनाते हैं तथा ठीक उसी समय चौथी राशि कर्क पांचवी राशी सिंह के साथ संधि स्थल बनाती है। इस प्रकार का तीसरा संधि स्थल तब बनता हैं जब अठारहवें नक्षत्र ज्येष्ठा का चौथा चरण तथा उन्नीसवें नक्षत्र मूल का पहला चरण आपस में संधि स्थल बनाते हैं तथा ठीक उसी समय आठवीं राशि वृश्चिक नवीं राशि धनु के साथ संधि स्थल बनाती है। इन तीनों में से किसी भी संधि स्थल में चन्द्रमा के स्थित होने से कुंडली में गंड मूल दोष का निर्माण होता है।
आइए अब इस दोष की प्रचलित परिभाषा तथा इसके वैज्ञानिक विशलेषण से निकली परिभाषा की आपस में तुलना करें। प्रचलित परिभाषा के अनुसार यह दोष चन्द्रमा के उपर बताए गए 6 नक्षत्रों के किसी भी चरण में स्थित होने से बन जाता है जबकि उपर दी गई वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार यह दोष चन्द्रमा के इन 6 नक्षत्रों के किसी एक नक्षत्र के किसी एक विशेष चरण में होने से ही बनता है, न कि उस नक्षत्र के चारों में से किसी भी चरण में स्थित होने से। इस प्रकार यह दोष हर चौथी-पांचवी कुंडली में नहीं बल्कि हर 18वीं कुंडली में ही बनता है। पाठकों की सुविधा के लिए इस दोष के बनने के लिए आवश्यक परिस्थितियों का जिक्र मैं सक्षेप में एक बार फिर कर रहा हूं। किसी भी कुंडली में गंड मूल दोष तभी बनता है जब उस कुंडली में :
चन्द्रमारेवतीनक्षत्रकेचौथेचरणमेंस्थितहों
अथवा
चन्द्रमा अश्विनी नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा श्लेषा नक्षत्र के चौथे चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा मघा नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र के चौथे चरण में स्थित हों
अथवा
चन्द्रमा मूल नक्षत्र के पहले चरण में स्थित हों
इस दोष के बारे में जान लेने के पश्चात आइए अब इस दोष से जुड़े बुरे प्रभावों के बारे में भी जान लें। गंड मूल दोष भिन्न-भिन्न कुंडलियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के बुरे प्रभाव देता है जिन्हें ठीक से जानने के लिए यह जानना आवश्यक होगा कि कुंडली में चन्द्रमा इन 6 में से किस नक्षत्र में स्थित हैं, कुंडली के किस भाव में स्थित हैं, कुंडली के दूसरे सकारात्मक या नकारात्मक ग्रहों का चन्द्रमा पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ रहा है, चन्द्रमा उस कुंडली विशेष में किस भाव के स्वामी हैं तथा ऐसे ही कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य। इस प्रकार से अगर यह दोष कुछ कुंडलियों में बनता भी है तो भी इसके बुरे प्रभाव अलग-अलग कुंडलियों में अलग-अलग तरह के होते हैं तथा अन्य दोषों की तरह इस दोष के बुरे प्रभावों को भी किसी विशेष परिभाषा के बंधन में नहीं बांधना चाहिए बल्कि किसी भी कुंडली विशेष में इस दोष के कारण होने वाले बुरे प्रभावों को उस कुंडली के गहन अध्ययन के बाद ही निश्चित करना चाहिए।
लेख के अंत में आइए इस दोष के निवारण के लिए किए जाने वाले उपायों के बारे में बात करें। इस दोष के निवारण का सबसे उत्तम उपाय इस दोष के निवारण के लिए पूजा करवाना ही है। यह पूजा सामान्य पूजा की तरह न होकर एक तकनीकी पूजा होती है तथा इसका समापन प्रत्येक मासे में किसी एक विशेष दिन ही किया जा सकता है। इस विशेष दिन से 7 से 10 दिन पूर्व यह पूजा शुरू की जाती है तथा 5 से लेकर 7 ब्राह्मण किसी एक मंत्र विशेष का एक निर्धारित सख्या में इस दोष से पीड़ित व्यक्ति के लिए जाप करना शुरु कर देते हैं। यह मंत्र इस दोष से पीड़ित व्यक्ति की कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति देखकर तय किया जाता है तथा इस दोष से पीड़ित विभिन्न लोगों के लिए यह मंत्र भिन्न हो सकता है। मंत्र का एक निश्चित संख्या में जाप पूरा होने पर इस पूजा के समापन के लिए निर्धारित किए गए दिन पर इस पूजा का समापन किया जाता है, जिसमें पूजन, हवन, दान, स्नान के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं।
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